यथार्थ....
छलावा....
निराकार.....
कामातुर
नायिका सा प्रलोभन,
वो
गुरुत्वाकर्षण....
नक्षत्र, उल्काओं सा मेरा गलन....
तुम में
समाहित होने को उतारू मैं....
तुम्हारा
अवशोषण ....
पा तुम्हें, तुम में खोना नियति,
तुम्हे अपना
कर, खोना है अस्तित्व अपना
जो बचता है
वो तुम हो, सिर्फ तुम....
तुम 'मैं' नहीं हो पाते हो....
मैं तुम में बस गुम हो
के रह जाता हूँ...
भो स्वप्न!
तुम आँखों
में पलते निमित मात्र एक सपना हो.....
या फिर कोई
‘ब्लैक होल’…..
प्रकाश की
रेखाएँ भी तुम में खो कर रह जाती हैं.....
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