यह शख्स मुझे, मेरे घर के उस गौरैये कि याद दिलाता है,
आंधी ने जिसके घोसले को तोडा था...
उसके पलते अरमानों के अण्डों को फोड़ा था....
निरीह,असहाय सी, आशियाने को तिनकों में बिखरती देखती रही...
पर अगले ही दिन, उन्ही तिनकों से..
वही, उसी जगह, अपना नया घरोंदा जोड़ा था....
आदमी जैसा दीखता है ..
कुछ तेरे जैसा, कुछ मेरे जैसा...
पर हम सब से है अलग....
थकता है.. पर रुकता नहीं है...
अक्सर नियति से हरता है...
मगर किस्मत के आगे झुकता नहीं है....
जाने किस मिटटी का बना है ये शख्स ..
ज़िन्दगी के समंदर के सामने साहिल सा सख्त..
नाकाम है.. पर नाकारा नहीं है..
दिन भर भटकता है मगर आवारा नहीं है...
थक गया है लेकिन हारा नहीं है....
(अरुण दादा के लिए...)
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