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एक मुलाक़ात....


कल सपने में मिली थी वो..
मेरी कल्पनाओं से परे..
आँखों में हंसी सपने भरे..
चहरे पर मुस्कराहट लिए...
पग-२ खुशियों की आहट लिए..
हर हंसीं चहरे से हंसीं...
नूतन नवीं...
हैरान परेशां मैं..
उसकी आँखों में झाँक रहा था..
मंत्र मुग्ध, सम्मोहित सा,
उसके चहरे को ताक रहा था..
बढ़ा हांथों को उसने मेरे चहरे को छुआ..
एक सिहरन सी हुई बदन में...
दर्द मिट से गए....
लगा यूँ भगवन ने खुद ही दी है एक दुआ...
कौन हो तुम ? पूछा मैंने..
पलकें झपका.. होठो को कर गोल..
बोली ज़िन्दगी हूँ मैं....
ज़िन्दगी.... चौका था मैं उस बात पर....
अगर तुम ज़िन्दगी हो तो 
वो कौन है जिसे मैं जानता हूँ...
जीता आ रहा हूँ जिसके साथ,
आज तक जिसे अपना मानता हूँ?
तू पागल है बोली वो...
वो भी मैं ही हूँ...
पर तुने बस मेरे एक रूप को चुना है 
जीवन की अपनी इबारत उस रूप से बुना है...
तू बरसों पहले के वक़्त में रुक गया है..
तन कर खड़ा होना था जहाँ वहीँ झुक गया है....
उठ, आगे बढ़, उंगली थाम मेरे साथ चल...
जिसको तू जी रहा है वो आज नहीं, है तेरा कल...
तू काँटों में क्यों में क्यों उलझा पड़ा है....
गुलाब देख....
यादों की गठरी छोड़..
नए ख्वाब देख....
बगिया फूलों से भरी है,
और तू सूखे पत्ते चुन रहा है..
हरसूं बिखरा बसंत है,
तू पतझड़ क्यों बुन रहा है...
खोल अपनी ऑंखें,
मत रोक अपनी सांसें....
नहीं तो अन्दर ही अन्दर घुट जायेगा 
तेरा स्वप्न महल बनने से पहले ही लुट जायेगा...
उठ.. जाग ..खुद से मत भाग....
सच से क्यों है बिमुख..
जब बसंत है तेरे सम्मुख ..?
उसकी झिड़की से ऑंखें खुल गई...
भाग आइने में खुद को देखा....
मैं तो वैसा ही था अब भी..
पर चहरे पर लाली थी....
लगता है रात को बसंत ने मेरी देहरी पर
दस्तक दे डाली थी....
(खुद के लिए.. )

टिप्पणियाँ

gauri ने कहा…
yeh bhi acchi lagi :)

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Calendar

  यूं तो साल दर साल, महीने दर महीने इसे पलट दिया जाता है, मगर कभी- वक्त ठहर सा जाता है, मानो calendar Freez कर दिया गया हो. ऐसा ही कुछ हुआ था हम तुम अपने पराए सब के सब रुक गए थे.  देश रुक गया था। कितने दिन से प्लानिग कर रहे थे हम, एक महीने पहले ही ले आया था वो pregnancy kit उसी दिन तो पता चला था कि हम अब मां बाप बनने वाले हैं। मैं तुरन्त घर phone कर बताने वाला था जब बीबी ने यह कह रोक दिया कि एक बार श्योर हो लेते हैं, तब बताना, कहीं false positive हुआ तो मज़ाक बन जाएगे। रुक गया, कौन जानता था कि बस कुछ देर और यह देश भी रुकने वाला है। शाम होते ही मोदी जी की  आवाज़ ने अफरा तफरी मचा दी Lockdown इस शब्द से रूबरू हुआ था , मैं भी और अपना देश भी। कौन जानता था कि आने वाले दिन कितने मुश्किल होने वाले हैं। राशन की दुकान पर सैकड़ो लोग खडे थे। बहुत कुछ लाना था, मगर बस 5 Kg चावल ही हाथ लगा। मायूस सा घर लौटा था।        7 दिन हो गए थे, राशन की दुकान कभी खुलती तो कभी बन्द ।  4-5दिन बितते बीतते दुध मिलाने लगा था। सातवें दिन जब दूसरा test भी Positive आया तो घर में बता दिया था कि अब हम दो से तीन हो रहे हैं

अंगूर खट्टे हैं-4

लोमडी की आँखें ... या निहार की आँखें....... ... आँखें जो बिन कहे सब कुछ कह जायें....... आँखे जिसने कभी भी निहारिका से झूठ नही बोला........ निहार की ही हो सकती हैं ये आँखें ........... और इन आंखों ने देखते देखते उसे माज़ी (अतीत) के हवाले कर दिया... याद आ गया वो दिन जब वह निहार से मिली थी....... .उस दिन काल सेंटर जाने का मन बिल्कुल ही नही था। मगर जाना ही पडा... सुबह घर पहुचते ही अनिकेत का कॉल ... लडाई... फिर पुरे दिन सो भी नही सकी ... शाम को ओफ्फिस ॥ वही रोज की कहानी .... सर दर्द से फटा जा रहा था ... काम छोड़ .... बहार निकल गई, कॉरिडोर तो पुरा सिगरेट के धुएं से भरा था .. 'पता नही लोग सिगरेट पिने आते हैं या काम करने ' ........... कैंटीन में जा कर बैठ गई.. अपने और अनिकेत के रिश्ते के बारे में सोचने लगी ... न जाने किस की नज़र लग गई थी....वह ग़लत नही थी.. अनिकेत भी ग़लत नही था अगर उसकी माने तो.. फिर ग़लत कौन था...और ग़लत क्या था.. ..अब उन्हें एक दुसरे की उन्ही आदतों से चिड होने लगी थी जिन पर कभी मर मिटते थे.. आज-कल उसे कोई भी वज़ह नही नज़र नही आ रही थी जिसकी वजह से दोनों साथ रहें .. फिर

बस यूं ही !

1) कभी यहाँ कभी वहाँ, कभी इधर कभी उधर, हवा के झोंकों के साथ, सूखे पत्ते की मानिंद, काटी थी डोर मेरी साँसों की, अपनी दांतों से, किसी ने एक रोज!   2) सिगरेट जला, अपने होठों से लगाया ही था, कि उस पे रेंगती चींटी से बोशा मिला,ज़ुदा हो ज़मीन पर जा गिरी सिगरेट, कहीं तुम भी उस रोज कोई चींटी तो नहीं ले आए थे अपने अधरों पे, जो..........   3) नमी है हवा में, दीवारों में है सीलन, धूप कमरे तक पहुचती नहीं … कितना भी सुखाओ, खमबख्त फंफूंद लग ही जाती है, यादों में!