सौहार्द, अहलाद,
आनंद परित्यक्त
देवत्व की राह चुनी
त्याग पुरुषत्व
भावनाओं के खँडहर पर
खड़ा, लाचार बेबस
मानव हो देवत्व की राह क्यों?
जिस पथ पर तू चल नहीं सकता
उस पथ की चाह क्यों?
पथिक तू क्यों है
निर्बल, एकाकी, अधीर?
काँटों का ताज तुने ही चुना..
क्यों घबराता है तम से अब
भ्रम का मकडजाल तुने ही बुना..
लक्ष्य से विचलित, विमुख मानव
तू जीवन के ज्वलंत ज्वार में खो गया है,
ज़िन्दगी की ताल से खो कर सुर
अब तू न मानव रहा,न देव है
तू एक असुर हो गया है.....
टिप्पणियाँ
मैंने शुरू किया है..
खुद बनते तुम देवता, देवी क्यूँ उसको बना दिया
निज स्वार्थ पूर्ति अमरत्व हेतु बलि-वेदी उसको चढ़ा दिया