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दिसंबर, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

साल का आखिर सच...

स्याह रात ने अपने पर फैला दिए थे .... साये गहरे होते जा रहे थे.... वो तड़प रहा था... सितारों ने बेड़ियों से जकड़ लिया था उसे....... आवारा उल्कायों ने पहले उसे दोस्ती के जाल  में फसाया और फिर जाते जाते उसे दाग दे कर चली गयीं ... अनगिनत दाग...उसके चहरे पर वो धब्बे साफ साफ नज़र आ रहे थे.... आवारा उल्काओं से उसकी दोस्ती धरती को पसंद नहीं आई थी शायद ... अब धरती की परछाई 'चाँद' को निगल रही थी... उसका अस्तित्व ख़त्म हो रहा था.... चांदनी का भी दम घुटा सा जा रहा होगा ... तभी तो उसकी रंगत पिली पड़ती जा रही थी.. चाँद की हमदर्द चांदनी ने भी शायद उससे दूर जाने का फैसला कर लिया था.... निसहाय सा चाँद उसे बस जाते हुए देख रहा था.... वो अपना हाँथ बढ़ा चांदनी की कलाई थाम लेना चाहता था..... पर उसके हाँथ तो उठे ही नहीं.... गुनाहों के बोझ तले दबे जो थे.... और बेरहम चांदनी? उसने तो पलट कर देखना भी गवारा न समझा...... चाँद की आँखे भर आई... उसकी आँखों से खून टपक रहा था...टप- टप... टप.. कर खून का हर एक कतरा मेरे लिहाफ को भिगोता रहा.... छत पर खड़ा मैं चाँद की इस दुर्गति का मूक दर्शक भर था..... चाँद की लौ

चेहरे

वो आइना अपना सा लगता था मुझे, आखिर उसी में तो एक चेहरा दिखता था जो जनता था मुझे, पहचानता था मुझे... एक रोज हवा का एक झोका  उसकी बुनियाद हिला गया, उसके अस्तित्व, उसके  अरमानो को मिटा गया. कराहता मिला था फर्श पर मुझे, उठाया, देखा, और पाया, कितना झूठा था मेरा आइना ता-उम्र मुझे एक झूठा चेहरा दिखाता रहा, मेरी वास्तविकता मुझसे ही छुपाता रहा, उसके को सच मन मैं बरसों इतराता रहा.. पर जाते-२ वो मुझे मेरी हकीक़त बता गया, मुझे मेरे अनगिनत चेहरा दिखा गया, चेहरे पर पहने थे कई चेहरे मैंने वो सब  से रु-ब-रु करा गया... वो टूट गया, अपना सा लगाने वाला  वो चेहरा मुझसे रूठ गया.. फिर आइने का सामना कम ही कर पता था, दिखाता था जिधर उधर जाने से कतराता था, खुद से नज़ारे मिलाने में ये शर्म कैसी? और क्यों? क्या मैंने गुनाह किया है? क्या मैंने सिर्फ झूठ को जिया है? नहीं,, तो फिर दर्पण से ये डर कैसा? सोच यह, कर हौसला बरसों बाद. आँखों के सामने से गुजरे  अपने ही चेहरे को कर के याद.. आज आइने से टकरा गया अपने नए नवेले अनोखे चेहरे  को देख घबरा गया.. खुछ खो सा गया था चेहरे से मेरे अपने ही चेहरे में एक कमी सी दिखी आँखों

असुर

सौहार्द, अहलाद, आनंद परित्यक्त  देवत्व की राह चुनी  त्याग पुरुषत्व  भावनाओं के खँडहर पर  खड़ा, लाचार बेबस  मानव हो देवत्व की राह क्यों? जिस पथ पर तू चल नहीं सकता  उस पथ की चाह क्यों? पथिक तू क्यों है निर्बल, एकाकी, अधीर? काँटों का ताज तुने ही चुना.. क्यों घबराता है तम से अब  भ्रम का मकडजाल तुने ही बुना.. लक्ष्य से विचलित, विमुख मानव  तू जीवन के ज्वलंत ज्वार में खो गया है, ज़िन्दगी की ताल से खो कर सुर अब तू न मानव रहा,न देव है तू एक असुर हो गया है.....