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जलते हुए सिग्रेट की आवाज़

कभी जलते हुए सिग्रेट की आवाज़
सुनी है तुमने?
एक अजीब सी आवाज़,
सन्नाटे को भेदती..
मानो उसे मिले हर ज़ख्म
का हिसाब मांगती हो...
कितनी मिलती है ना
उसकी आवाज़ मेरे दिल की आवाज़ से....?
सुन अपनापन सा लगता है.
वही चीर-परिचित सदायें,
वहीँ धुआ-२ सा माहौल..
कभी सुनना इस व्यथा को तुम,
मेरे दिल की सदाओं जैसी ही लगेंगीं,
आखिर दोनों एक ही तो हैं..
जनता हूँ, सुन कर यहीं सोचोगे
कि तुमने कौनसे ज़ख्म दिए हैं मुझे?
मैं भी सिग्रेट जला यही सोचता हूँ..
इसके सवाल बेमानी से लगते है...
मगर जलन उसका क्या?
मेरी और सिग्रेट की फितरत
लगभग एक सी हैं..
बस फर्क इतना भर ही है
सिग्रेट जलाते जलते बुझ जाती है..
और मैं बुझते-२ जल जाता हूँ...
एक जल कर भस्म  हो जाता है
और एक......
जितना बुझाओ
उतनी ही शिद्दत से जलाता है....
एक बार जरुर जलाना सिग्रेट..
शायद बुझने से पहले
ये उन सवालों को पूछ बैठे ..
जो मैं जीते-जी, कभी ना पूछ पाऊं...
एक कश जरुर लेना... शायद..
सिग्रेट की आत्मा को शान्ति मिले..
बुझने से पहले वो
उन होठों  को छू कर गुजरे..
जिनसे अब मेरा नाम ...
बमुश्किल ही निकलता हो....

टिप्पणियाँ

सिगरेट के माध्यम से मन की व्यथा को बतलाने का ये ढंग बहुत पसंद आया. एक बार मैंने भी सिगरेट पर एक कविता लिखी थी, मगर आप का ये अंदाज बहुत पसंद आया.

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बस यूं ही !

1) कभी यहाँ कभी वहाँ, कभी इधर कभी उधर, हवा के झोंकों के साथ, सूखे पत्ते की मानिंद, काटी थी डोर मेरी साँसों की, अपनी दांतों से, किसी ने एक रोज!   2) सिगरेट जला, अपने होठों से लगाया ही था, कि उस पे रेंगती चींटी से बोशा मिला,ज़ुदा हो ज़मीन पर जा गिरी सिगरेट, कहीं तुम भी उस रोज कोई चींटी तो नहीं ले आए थे अपने अधरों पे, जो..........   3) नमी है हवा में, दीवारों में है सीलन, धूप कमरे तक पहुचती नहीं … कितना भी सुखाओ, खमबख्त फंफूंद लग ही जाती है, यादों में!