घर को सजा
दीवारों पर पोस्टर लगा
खिड़की खोल , परदे हटा,
दरवाजे से सर को सटा ,
एक टक , सूनी सड़क को देखता हूँ,
और देखता रहता हूँ...
पसीने से लदफद पथिक
बूढ़े बरगद तले बैठता है सुस्ताने ,
चिड़ियों में नहीं नज़र आती कोई चपलता ,
सुबह-सबेरे जो लगाती थी चहचहाने
ग्रीष्म के तपिस को सहता हूँ ,
और सहता रहता हूँ...
दिल की नदी सूखी पड़ी है ,
कल्पनाये बंजर हो चली हैं ,
सूखा है गुल , सूखी कली,
खामोश सा मंज़र , सूनी गली,
कागज़ पर कुछ लकीरे उकेरता हूँ ,
और उकेरता रहता हूँ...
ना वो शब्द हैं ,नहीं वो भाव,
नहीं इनमें है कोई सरगोशी,
नहीं है वो पहले सा अलाव,
ना कुछ करने की इच्छा है , नाही चाव
फिर भी तेरे कथन पर कुछ न कुछ करता हूँ ,
और करता ही रहता हूँ...
न मन में कोई अवसाद है
और नहीं कोई व्यथा ,
माथे पर हैं कुछ खुरचने,
बयाँ कराती विरह कथा.
तेरी आमाग का इन्तेजार करता हूँ
और करता ही रहता हूँ.. और करता ही रहता हूँ...
दीवारों पर पोस्टर लगा
खिड़की खोल , परदे हटा,
दरवाजे से सर को सटा ,
एक टक , सूनी सड़क को देखता हूँ,
और देखता रहता हूँ...
पसीने से लदफद पथिक
बूढ़े बरगद तले बैठता है सुस्ताने ,
चिड़ियों में नहीं नज़र आती कोई चपलता ,
सुबह-सबेरे जो लगाती थी चहचहाने
ग्रीष्म के तपिस को सहता हूँ ,
और सहता रहता हूँ...
दिल की नदी सूखी पड़ी है ,
कल्पनाये बंजर हो चली हैं ,
सूखा है गुल , सूखी कली,
खामोश सा मंज़र , सूनी गली,
कागज़ पर कुछ लकीरे उकेरता हूँ ,
और उकेरता रहता हूँ...
ना वो शब्द हैं ,नहीं वो भाव,
नहीं इनमें है कोई सरगोशी,
नहीं है वो पहले सा अलाव,
ना कुछ करने की इच्छा है , नाही चाव
फिर भी तेरे कथन पर कुछ न कुछ करता हूँ ,
और करता ही रहता हूँ...
न मन में कोई अवसाद है
और नहीं कोई व्यथा ,
माथे पर हैं कुछ खुरचने,
बयाँ कराती विरह कथा.
तेरी आमाग का इन्तेजार करता हूँ
और करता ही रहता हूँ.. और करता ही रहता हूँ...
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मंगलवार 06 जुलाई को आपकी रचना....व्यथा ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है आभार
http://charchamanch.blogspot.com/