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प्रतीक्षा...



घर को सजा
दीवारों पर पोस्टर लगा

खिड़की खोल
, परदे हटा,
दरवाजे से सर को सटा
,
एक टक
, सूनी सड़क को देखता हूँ,
और देखता रहता हूँ...


पसीने से लदफद
पथिक
बूढ़े बरगद तले बैठता है सुस्ताने
,
चिड़ियों में नहीं नज़र आती कोई चपलता
,
सुबह-सबेरे जो लगाती थी चहचहाने

ग्रीष्म के तपिस को सहता हूँ
,
और सहता रहता हूँ...


दिल की नदी सूखी पड़ी है
,
कल्पनाये बंजर हो चली हैं
,
सूखा है गुल
, सूखी कली,
खामोश सा मंज़र
, सूनी गली,
कागज़ पर कुछ लकीरे उकेरता हूँ
,
और उकेरता रहता हूँ...


ना वो शब्द हैं
,नहीं वो भाव,
नहीं इनमें है कोई सरगोशी,

नहीं है वो पहले सा अलाव,

ना कुछ करने की इच्छा है
, नाही चाव
फिर भी तेरे कथन पर कुछ न कुछ करता हूँ
,
और करता ही रहता हूँ...


न मन में कोई अवसाद है

और नहीं कोई व्यथा
,
माथे पर हैं कुछ खुरचने,

बयाँ कराती विरह कथा.

तेरी आमाग का इन्तेजार करता हूँ

और करता ही रहता हूँ.. और
करता ही रहता हूँ...

टिप्पणियाँ

प्रतीक्षा की सुन्दर अभिव्यक्ति...

मंगलवार 06 जुलाई को आपकी रचना....व्यथा ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है आभार

http://charchamanch.blogspot.com/
Rahul Ranjan Rai ने कहा…
'व्यथा' को चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच में लेने के लिए संगीता जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद...

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Calendar

  यूं तो साल दर साल, महीने दर महीने इसे पलट दिया जाता है, मगर कभी- वक्त ठहर सा जाता है, मानो calendar Freez कर दिया गया हो. ऐसा ही कुछ हुआ था हम तुम अपने पराए सब के सब रुक गए थे.  देश रुक गया था। कितने दिन से प्लानिग कर रहे थे हम, एक महीने पहले ही ले आया था वो pregnancy kit उसी दिन तो पता चला था कि हम अब मां बाप बनने वाले हैं। मैं तुरन्त घर phone कर बताने वाला था जब बीबी ने यह कह रोक दिया कि एक बार श्योर हो लेते हैं, तब बताना, कहीं false positive हुआ तो मज़ाक बन जाएगे। रुक गया, कौन जानता था कि बस कुछ देर और यह देश भी रुकने वाला है। शाम होते ही मोदी जी की  आवाज़ ने अफरा तफरी मचा दी Lockdown इस शब्द से रूबरू हुआ था , मैं भी और अपना देश भी। कौन जानता था कि आने वाले दिन कितने मुश्किल होने वाले हैं। राशन की दुकान पर सैकड़ो लोग खडे थे। बहुत कुछ लाना था, मगर बस 5 Kg चावल ही हाथ लगा। मायूस सा घर लौटा था।        7 दिन हो गए थे, राशन की दुकान कभी खुलती तो कभी बन्द ।  4-5दिन बितते बीतते दुध मिलाने लगा था। सातवें दिन जब दूसरा test भी Positive आया तो घर में बता दिया था कि अब हम दो से तीन हो रहे हैं

अंगूर खट्टे हैं-4

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बस यूं ही !

1) कभी यहाँ कभी वहाँ, कभी इधर कभी उधर, हवा के झोंकों के साथ, सूखे पत्ते की मानिंद, काटी थी डोर मेरी साँसों की, अपनी दांतों से, किसी ने एक रोज!   2) सिगरेट जला, अपने होठों से लगाया ही था, कि उस पे रेंगती चींटी से बोशा मिला,ज़ुदा हो ज़मीन पर जा गिरी सिगरेट, कहीं तुम भी उस रोज कोई चींटी तो नहीं ले आए थे अपने अधरों पे, जो..........   3) नमी है हवा में, दीवारों में है सीलन, धूप कमरे तक पहुचती नहीं … कितना भी सुखाओ, खमबख्त फंफूंद लग ही जाती है, यादों में!