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रह-गुजर



अल्हड सा बचपन
सावन का यौवन,
पतझड़ की किलकारी
फागुन की पिचकारी 


वो नीम, वो झूला,
कागज के कप, मिट्टी का चूल्हा
एक बरसाती नांव

वो सर्दियों में अलाव

यौवन का दस्तक,
बचपन की विदाई,
तेरी पहली अंगड़ाई
वो शाम हरजाई.

तेरी तिरछी नज़र
वो कच्ची उम्र
भीड़ में तन्हाई
पहले प्यार की परछाई.

दिल बेकरार
तेरा इंतजार
मोहब्बत का इजहार
और..तेरा इनकार

शूल सी चुभन,
मन में दहन
बर्ताव अनजाना
मेरा रूठना, तेरा मनाना..

स्वप्नों का पल्लवन
मुस्कराहट का नमन
दिल धीर-अधीर
मैं, तुम, और नदी का तीर.

जज्बातों की गिरह
खयालातों की जिरह
मन पे उकेरी इबारत
ख्वाबों की ईमारत

न अब वो पल हैं
नाही पलछिन,
न जाने कहाँ हो तुम
मैं भी हूँ कहीं गुम...

न तू, न मैं
क्या जय, क्या पराजय.
उन शब्दों की खनक
ज्यों विशाल धनक..

काली घटा
तेरी छटा,
तम् घोर,
इत-उत चहुँ ओर..

राह ताकती ऑंखें,
तेरी धुंधली छवि,
वो मासूम पल,
मेरा आज, मेरा कल

तेरी रुखी आवाज़
वो रूठे साज
रिश्तों की दूरियां
तेरी मेरी मजबूरियां

बिन तेरे भोर
एक ख़ामोशी का शोर,
आँखों की गुफ्तगू
और तेरी जुस्तजू.

तन्हा सा घर
तन्हा रह-गुजर
तेरे बिन जीवन है रीता

न पवन न विनीता.

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Calendar

  यूं तो साल दर साल, महीने दर महीने इसे पलट दिया जाता है, मगर कभी- वक्त ठहर सा जाता है, मानो calendar Freez कर दिया गया हो. ऐसा ही कुछ हुआ था हम तुम अपने पराए सब के सब रुक गए थे.  देश रुक गया था। कितने दिन से प्लानिग कर रहे थे हम, एक महीने पहले ही ले आया था वो pregnancy kit उसी दिन तो पता चला था कि हम अब मां बाप बनने वाले हैं। मैं तुरन्त घर phone कर बताने वाला था जब बीबी ने यह कह रोक दिया कि एक बार श्योर हो लेते हैं, तब बताना, कहीं false positive हुआ तो मज़ाक बन जाएगे। रुक गया, कौन जानता था कि बस कुछ देर और यह देश भी रुकने वाला है। शाम होते ही मोदी जी की  आवाज़ ने अफरा तफरी मचा दी Lockdown इस शब्द से रूबरू हुआ था , मैं भी और अपना देश भी। कौन जानता था कि आने वाले दिन कितने मुश्किल होने वाले हैं। राशन की दुकान पर सैकड़ो लोग खडे थे। बहुत कुछ लाना था, मगर बस 5 Kg चावल ही हाथ लगा। मायूस सा घर लौटा था।        7 दिन हो गए थे, राशन की दुकान कभी खुलती तो कभी बन्द ।  4-5दिन बितते बीतते दुध मिलाने लगा था। सातवें दिन जब दूसरा test भी Positive आया तो घर में बता दिया था कि अब हम दो से तीन हो रहे हैं

अंगूर खट्टे हैं-4

लोमडी की आँखें ... या निहार की आँखें....... ... आँखें जो बिन कहे सब कुछ कह जायें....... आँखे जिसने कभी भी निहारिका से झूठ नही बोला........ निहार की ही हो सकती हैं ये आँखें ........... और इन आंखों ने देखते देखते उसे माज़ी (अतीत) के हवाले कर दिया... याद आ गया वो दिन जब वह निहार से मिली थी....... .उस दिन काल सेंटर जाने का मन बिल्कुल ही नही था। मगर जाना ही पडा... सुबह घर पहुचते ही अनिकेत का कॉल ... लडाई... फिर पुरे दिन सो भी नही सकी ... शाम को ओफ्फिस ॥ वही रोज की कहानी .... सर दर्द से फटा जा रहा था ... काम छोड़ .... बहार निकल गई, कॉरिडोर तो पुरा सिगरेट के धुएं से भरा था .. 'पता नही लोग सिगरेट पिने आते हैं या काम करने ' ........... कैंटीन में जा कर बैठ गई.. अपने और अनिकेत के रिश्ते के बारे में सोचने लगी ... न जाने किस की नज़र लग गई थी....वह ग़लत नही थी.. अनिकेत भी ग़लत नही था अगर उसकी माने तो.. फिर ग़लत कौन था...और ग़लत क्या था.. ..अब उन्हें एक दुसरे की उन्ही आदतों से चिड होने लगी थी जिन पर कभी मर मिटते थे.. आज-कल उसे कोई भी वज़ह नही नज़र नही आ रही थी जिसकी वजह से दोनों साथ रहें .. फिर

बस यूं ही !

1) कभी यहाँ कभी वहाँ, कभी इधर कभी उधर, हवा के झोंकों के साथ, सूखे पत्ते की मानिंद, काटी थी डोर मेरी साँसों की, अपनी दांतों से, किसी ने एक रोज!   2) सिगरेट जला, अपने होठों से लगाया ही था, कि उस पे रेंगती चींटी से बोशा मिला,ज़ुदा हो ज़मीन पर जा गिरी सिगरेट, कहीं तुम भी उस रोज कोई चींटी तो नहीं ले आए थे अपने अधरों पे, जो..........   3) नमी है हवा में, दीवारों में है सीलन, धूप कमरे तक पहुचती नहीं … कितना भी सुखाओ, खमबख्त फंफूंद लग ही जाती है, यादों में!