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नीयत और नियति

अब भी देखता हूँ तुझे अपनी नियति से लड़ते हुए। तू तब भी लड़ती थी, बचपन से अब तक............ तुझे लड़ते ही पाया है, हालात से, जज्बात से, कभी ख्यालात से डरती नहीं है तू मुंह मोड़ती नहीं है तू.... हर वीरान सफ़र पर अकेली ही निकलती थी। शायद कोई उम्मीद होगी, लोग आएंगे और कारवां बनेगा! न कोई आया कभी, नाहीं बना कोई कारवां ... फिर भी थकते नहीं देखा तुझे। फिर भी ना रुकी कभी तू अपनी नियति के आगे कभी झुकी नहीं तू.. तेरी ये अनंत यात्रा अनवरत जारी है, जानता हूं तेरी नियत तेरी नियति पे भारी है। कहती थी तू "भाई, मुझे जीतते रहना होगा.. लड़की हूँ ना! एक बार हारी तो हारते रहना होगा.... " सच कहती थी .. बस एक बार हारी थी, फिर हारी थी बार बार! खो सी गई फिर कहीं तू..... माँ के कंधे पर सर रख सोते देखा कई बार, हार के तकिये को भिगोते देखा कई बार। आज बरसों बाद तुझे फिर से लड़ते हुए देखा। वो जीतने का ज़ज्बा वो जिद, उन्हें फिर से तेरी गोद में अंगड़ाई लेते हुए देखा। कुछ ख्वाबों को तेरी आँखों में फिर से पलते हुए देखा, कुछ आधी अधूरी ख्वाहिशों को तेरी पल